|| हिंदी दोहे ||
हर मसले की काट में, इतना नहीं असक्त।
जाने क्यों सूझे नहीं, ऐन काम के वक्त।।
सुनता है आकाश भी, मेरे सब अरमान।
जाने फिर किस रंग में, करते चले बखान।।
बात किसी ने ना समझी, जीत मिली कि हार ।
दिल में ही सब कैद हैं, भला क्या कहें लिलार ।।
सबकुछ ही बाज़ार हैं, सबमे दिखता हाट ।
मन सुकून जहाँ मिले, किधर है ऐसा घाट ।।
अटकी बात जुबान में, माथा करता सोच ।
मानो बस उनकी जुबां, लेगी सबकुछ नोंच ।।
देखें नाही आँख में, बोले है बस बोल ।
कैसे वो जाने भला, खामोशी की मोल ।।
मेरे मन की भूमि को, लो तनिका तुम झाँक ।
कैसी तो यादें भला, हरपल देती हाँक ।।
कैसे दे जवाब हम की है कैसा ये हाल ।
मारग दिखता सामने, या कोई भँवजाल ।।
दीपक सिंह (कोलकाता)
दीपक कुमार सिंह मूलतः सिवान(बिहार) के रहने वाले हैं। कोलकाता(पश्चिम बंगाल) के महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज से कॉमर्स में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे हैं । दीपक काव्य की हर विधा में अपनी कलम चला रहे हैं। हिंदी-उर्दू के साथ ही अपनी मातृभाषा भोजपुरी की सेवा में समर्पित हैं। फिलहाल दीपक सिरिजन पत्रिका के बीयूरो चीफ(पश्चिम बंगाल) के पद के कार्यरत हैं।