प्रथम आंग्ल- मैसूर युद्ध (First anglo mysore war) (1767-1769)
पृष्ठभूमि: बंगाल में अपनी सुगम सफलता के पश्चात्, स्वाभाविक रूप से अंग्रेज अपनी सैन्य शक्ति को लेकर थोड़ा आश्वस्त हो गए और आस-पास के क्षेत्रों में विस्तार करना शुरू कर दिया। प्रथम आंग्ल- मैसूर युद्ध अंग्रेजों की आक्रामक नीति का परिणाम था। उन्होंने हैदराबाद के निजाम (1766) के साथ संधि की और उसे अंग्रेजों को उत्तरी सरकार का क्षेत्र देने के लिए मनाया, जिसके बदले में उन्होंने उसे हैदर अली से सुरक्षा प्रदान करने का वचन दिया।
1766 में हैदर अली मराठों के आक्रमण का सामना कर रहा था। उसी समय अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम को सामरिक सहायता दी और उसे मैसूर पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। हैदर अली को अंग्रेजों के इस दुर्भावनापूर्ण रवैये पर बहुत क्रोध आया और उसने अब पहले अंग्रेजों को ही पाठ पढ़ाने का निश्चय किया। हैदर अली ने मराठों से संधि कर ली और महफूज खां की सहायता से निजाम के साथ भी संधि कर ली ।
– युद्धः हैदर अली ने अंग्रेजों के मित्र राज्य कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों ने हैदर अली एवं निजाम को सितंबर, 1767 में संगम एवं तिरुवन्नामलई नामक स्थानों पर पराजित कर दिया। अवसरवादी निजाम ने फिर से पाला बदला और फरवरी, 1768 में अंग्रेजों से संधि कर ली। हैदर अली ने इस धोखे का सही जवाब देते हुए एक बार फिर से अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया। उसने मंगलौर में बंबई से आई प्रशिक्षित अंग्रेज सैनिक टुकड़ी को बुरी तरह हराया और 1769 के आते-आते अंग्रेजों को मद्रास तक धकेल दिया। अस्तित्व का संकट देखते हुए अप्रैल, 1769 में अंग्रेजों ने हैदर अली की शर्तों पर मद्रास की संधि कर ली। इस संधि में अन्य शर्तों के अतिरिक्त यह व्यवस्था भी थी कि अंग्रेज हैदर अली को युद्ध का खर्च एवं जुर्माना देंगे। परंतु यह युद्ध संधि वास्तव में एक
विराम संधि ही थी।
द्वितीय आंग्ल- मैसूर युद्ध (Second anglo mysore war) (1780 84 ) –
पृष्ठभूमि: 1771 में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया। मद्रास की संधि की शर्तों के अनुसार, अंग्रेजों को हैदर अली की सहायता करनी चाहिए थी, परंतु उन्होंने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। उधर, मराठा एवं निजाम बंबई प्रेजिडेंसी में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़ रहे थे। हैदर अली ने भी अंग्रेजों के विश्वासघात को देखते हुए मराठों एवं निजाम के साथ त्रिगुट संधि कर ली।
गठबंधन में परिवर्तन:
अंग्रेजों ने आगे और भी गैर-जिम्मेदाराना रुख अख्तियार करते हुए हैदर अली के राज्यक्षेत्र में स्थित माहे में फ्रांसीसियों की बस्ती पर आक्रमण कर मार्च 1773 में उस पर अधिकार कर लिया। यह स्पष्ट रूप से हैदर अली की प्रभुसत्ता को चुनौती थी। युद्धः जुलाई, 1780 में हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया और यहीं से द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध आरंभ हो गया। हैदर ने अंग्रेज जनरल बेली को कर्नाटक के मैदान में बुरी तरह परास्त किया और अक्टूबर 1780 में अर्काट पर अधिकार कर लिया। जब अंग्रेज एक बार फिर से एक शर्मनाक हार की कगार पर थे, तो अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने कूटनीतिक चाल चली। उसने निजाम को गुंटूर देकर हैदर अली से अलग कर दिया और सिंधिया – भोंसले को भी अपने साथ मिला लिया। 1780 में नए अंग्रेज जनरल आयर कूट ने पोर्टो नोवो, पोलिलूर, शोलिंगलूर में अकेले पड़ चुके हैदर अली को कई बार परास्त किया। परंतु, हैदर अली ने एक बार फिर अपना उत्साह दिखाया और सितंबर, 1782 में आयर कूट को हरा दिया।
मंगलौर की संधिः
मंगलौर की संधिः 7 दिसंबर, 1782 को हैदर अली की मृत्यु हो गई; उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने उसके बाद युद्ध जारी रखा। परंतु, अब न तो अंग्रेज युद्ध जारी रख पाने की स्थिति में थे; और न ही टीपू अंग्रेजों को करारी मात देने की स्थिति में था। ऐसे में मार्च 1784 में दोनों पक्षों ने मंगलौर की संधि कर ली, जिसके तहत दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के भू-भागों को लौटा देने पर सहमति व्यक्त की।
तृतीय आंग्ल- मैसूर युद्ध (Third anglo mysore war ) (1790 1792 )
पृष्ठभूमिः यह युद्ध भी अंग्रेजों की छलपूर्ण नीति का ही परिणाम था। 1788 में कंपनी ने हैदराबाद के निजाम को फिर से टीपू के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार होने के लिए पत्र लिखा। टीपू ने इसे संधि के उल्लंघन के रूप में लिया, और 1789 में त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया। त्रावणकोर का राजा अंग्रेजों का मित्र था। टीपू के इस आक्रमण को आधार बनाकर अंग्रेजों ने मराठों एवं निजाम से संधि कर ली।
युद्धः तृतीय आंग्ल- मैसूर युद्ध तीन चरणों में हुआ। पहले चरण में अंग्रेजों का सेनापति जनरल मिडो था। टीपू सुल्तान की मजबूत सामरिक स्थिति के कारण मिडो को कोई उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई। ऐसे में दूसरा चरण दिसंबर,
” 1790 में शुरू हुआ, जिसका नेतृत्व कॉर्नवालिस ने स्वयं किया। मार्च 1791 तक उसने वेल्लौर और अंबूर पर अधिकार कर लिया था। फिर वह टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टम् के पास भी आ गया, पर वर्षा ऋतु के आ जाने से वह अभियान को जारी नहीं रख सका, और उसे मंगलौर की ओर वापस आना पड़ा। युद्ध 1791 की गर्मियों में टीपू ने कोयंबटूर पर अधिकार करते हुए फिर से की शुरुआत कर दी। इस तीसरे चरण में कॉर्नवालिस की सहायता करने के लिए मिडो, स्टुअर्ट, मैक्सवेल और हंटर जैसे अंग्रेज सैनिक अधिकारी भी आए थे। श्रीरंगपट्टम की संधि: टीपू ने बहादुरी से युद्ध किया, पर अंग्रेजों की सामरिक स्थिति मजबूत होने के कारण उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा; और मार्च 1792 में उसे श्रीरंगपट्टम की संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस अपमानजनक संधि के अंतर्गत टीपू सुल्तान को अपने राज्य का लगभग आधा हिस्सा अंग्रेजों, मराठों एवं निजाम को दे देना पड़ा । अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में तीन करोड़ रुपये देने पड़े; और अपने दो बेटों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में भी रखना पड़ा।
चतुर्थ आंग्ल- मैसूर युद्ध (Fourth anglo mysore war) (मार्च 1799 – मई 1799
पृष्ठभूमिः श्रीरंगपट्टम् संधि की अपमानजनक शर्तें टीपू सुल्तान जैसा स्वाभिमानी शासक अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता था। भारतीय राज्यों से उसे
कुछ लेखकों द्वारा टीपू को पहला भारतीय राष्ट्रवादी और भारत की आजादी के लिए एक शहीद माना गया है। लेकिन यह गलत मत अतीत में वर्तमान को प्रक्षेपित करने से आया। जिस युग में टीपू रहता था और शासन करता था, उसमें राष्ट्रवाद का कोई भी भाव नहीं था या भारतीयों को यह आभास नहीं था कि वे गुलाम थे। इसलिए, यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि टीपू ने भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया या युद्ध का बिगुल बजाया । वास्तव में, वह अपनी शक्ति एवं सत्ता तथा स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए लड़ा। – मोहिब्बुल हसन, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान
जब एक व्यक्ति एक अनजान देश की यात्रा कर रहा है और वह उसे कृषि संपन्न, उद्योग, नवीन शहर, बढ़ते व्यापार, शहरीकरण एवं समस्त रूप से समृद्ध पाता है, जो खुशहाली की ओर संकेत करती है, तो वह स्वाभाविक रूप से यह अनुमान लगाता है कि वह देश लोगों के अनुकूल एक सरकार के अधीन है। यह टीपू के देश की तस्वीर है।
– लेफ्टिनेंट मूर
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