साहित्य मंच – रसोईघर के चार कोने…
सारिका पाण्डेय साहित्य-मंच संपादक
संदीप राज “आनंद”
कविता_1
एक दो तीन और चार ,
हां!….
रसोईघर के चारो कोनो में
चींटियों सा चुपचाप
रेंगती रहती है
बिना थकान के वो।
गली , मुहल्ले के
पंचायती ताने-बाने से अछूती,
वर्तमान के तख्ते से सटी बैठी
काटती है ढेरो प्याज हर रोज,
ताकि उसके आंसू
धो सके मेरे भविष्य की मैल।
बिना थके हर रोज
बुहारती है सबके वर्तमान की धूल,
छुड़ाती है भूत के जाले
कहीं कहीं न पहुंच पाने पर
उठाती है एड़ी…..
और, हां!….
भविष्य के लिए हर रोज बनती है चींटी
ताकि रेंग सके धीरे धीरे
चारो कोनों तक।
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कविता_2
परिभाषाएं चुननी हो
व्यवस्था की —
तो रसोई में झांको ,
हां – हां
आम जीवन से लेकर
खास जीवन वाली रसोई में झांको ।
हो सके तो
जीवन को क्रियान्वित करने वाली
मन की रसोई में भी झांको ।
झांको उस रसोई में भी
जहां केवल स्त्री ही नहीं
पुरूष भी दिखे ,
पसीने से तर-बतर रोटियों को आकार देते
या यूं कहें जीवन को आकार देते।
यदि पहचान में आये
हृदयतल के तवे पे सिंकती
रोटियों की महक ,
या फिर व्यथित करे
आमजन के रसोई की रिसती छत
तो समझना ………….
तुम मनुष्य हो……
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संक्षिप्त परिचय
सारिका पाण्डेय
बस्ती ,उत्तर प्रदेश(272127)
शिक्षा-स्नातक (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
दूरभाष- 7379640220
ईमेल – [email protected]
बहुत अच्छा लिखा है।??
बहुत अच्छी कविता ?
दोनों ही कविताएं भावप्रवण और विचार समृद्ध हैं। छपने की बधाई , आगे लिखते रहने की शुभकामनाएं सारिका!?
आपकी यह कविता पढ़ कर उद्वेलित हुई , उस पहल को देखने के लिए जो समाज में लगातार जबरन पछाड़ दी जा रही है।
बहुत बढ़िया कविता….. गृहणी का यथार्थ
दिल को छू लेने वाले शब्दों से परिपूर्ण ।
Mike Oreon https://ijrfpioqqerjw.com 123