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अभिजित अयंक की ग़ज़लें…

संदीप राज़ आनन्द by संदीप राज़ आनन्द
March 30, 2022
in साहित्य मंच, आपका मंच, शायरी
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sahitya manch - gazal

Sahitya Manch– gazal

ग़ज़ल-1

वहां पर फूल संग खुशबू दिखे है
जहां पर इश्क़ का साधू दिखे है

ये पत्थर फूल बन कर लग रहे हैं
अलग ही कैस का जादू दिखे है

मोहब्बत इस तरह हम कर रहे हैं
कि जिसमें हर घड़ी बस तू दिखे है

थे काले अब्र औ तारे नहीं थे
तभी फिर दश्त में जुगनू दिखे है

ये कैसे लोग इतना जी रहे हैं
हमें तो मौत ही हर-सू दिखे है

वो मेरे वास्ते मर भी है सकता
वही इक दोस्त जो बाजू दिखे है

——————————

ग़ज़ल-2

मुद्दतों बाद इक हँसी के लिए
मौत लाये हैं जिंदगी के लिए

चूमते उसको बंदगी के लिए
आंख प्यासी थी जिस नबी के लिए

रोज़ मानस को पढ़ते रहते हैं
बंद आंखों की रौशनी के लिए

बेच कर फूल इक दुकां पर हम
टाॅफियां लाये हैं कली के लिए

वो मुझे छोड़ आसमां की हुई
रेत रोती रही नदी के लिए

हम उसे छोड़ ही नहीं पाये
चक्र जिंदा है तर्जनी के लिए

वो जो खुश है तो हम भी खुश हैं अब
ये सुई चल रही घड़ी के लिए

——————————

ग़ज़ल-3

ये आज नहीं तो कल होगा
तू बाहों में हर पल होगा

तुम हाथ मेरे जब चूमोगी
आंखों में गंगाजल होगा

याँ कितनी मधुर आवाजें है
चिड़ियों का कोई दल होगा

जब धरती ,बादल मिलते हो
वो कितना सुंदर पल होगा

ये मीठा पानी किस नल का
बेशक काबे का नल होगा

बस राधे राधे कह लो तुम
सारे प्रश्नों का हल होगा

——————————

ग़ज़ल-4

तारों को नज़रों से पिरोया करते हैं
उम्मीदों की गोद में सोया करते हैं

एक सूरज के उगने की चाहत में हम
जाने कितने जुगनू बोया करते हैं

अश्क हमारे देख नहीं पाओगे तुम
हम शावर के नीचे रोया करते हैं

पहले बर्तन भर लेते हैं आंसू से
फिर हम उसमें चांद डुबोया करते हैं

फूलों को भौरें बोसे कर जाते हैं
बाद में हम पंखुरियां धोया करते हैं

अभिजित उनका हाथ पकड़ के चलता है
जो दर्पण के शहर में खोया करते हैं

——————————

ग़ज़ल-5

वफा के नाम पर ऐसा हुआ है
बदन को नेल से नोचा हुआ है

सिपाही को तो ये मालूम था जी
लड़ाई से भला किसका हुआ है

ये अपना हाथ मुझको दे सकोगे
किसी ने वक़्त से पूछा हुआ है

परिंदे घर तो आना चाहते हैं
मगर पेड़ों को जाने क्या हुआ है?

यही मौका है बचकर भाग अभिजित
शिकारी जाल में उलझा हुआ है

——————————

ग़ज़ल-6

उदासी में चलो फिर मुस्कुराते हैं
किसी प्यासे को पानी देके आते हैं

कभी एक पेड़ जब कोई लगाता है
परिंदे आसमां में गीत गाते हैं

नये मौजू की ग़ज़लें हैं मगर हम तो
छतों पर मीर, ग़ालिब गुनगुनाते हैं

मुझे रोने से भी कब चैन मिलता है
ये आंसू कब किसी के ग़म मिटाते हैं

किसी का गम कभी इससे न ज्यादा है
बिछड़ कर राम जब ‘ सीते ‘ बुलाते हैं

कभी ख्वाहिश हुई है मांगने की तब
सितारे सब फ़ल़क से टूट जाते हैं

कि हर बाजी को ‘अभिजित’ खेलता छिपकर
न  जाने  कैसे  पत्ते  खुल  ही  जाते  हैं

_________________________________
   
अभिजित अयंक
नई दिल्ली

साहित्य मंच-अमर’ की चुनिंदा रचनाएँ

साम्राज्यवाद क्या है ? इसके 3 प्रमुख चरण

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