Sahitya Manch
ग़ज़ल-1
ज़ख़्म ताज़ा इस बहाने से मिला था
है पुरानी कील कैलेंडर नया था
दरमियाँ ही चुप्पियाँ पसरी पड़ी थी
दूरियाँ कुछ भी न थी पर फ़ासला था
आ रहा है याद वो रह रह के मुझको
वक्ते रुख़सत कान में कुछ तो कहा था
दोपहर की नींद थी और धूप ज़्यादा
ख़ाब जो पलकों पे था वो अधमरा था
रो पड़ा मैं जब पड़ोसी ने बताया
कल कोई आया था पर ताला लगा था
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ग़ज़ल-2
वो मेरे रंग में रंगता नहीं था
वगरना पास मेरे क्या नहीं था
ढहाया मैं गया था एक दिन और
मेरे हिस्से मेरा मलबा नहीं था
उठाए फिर रहे थे लाश दोनों
कोई भी दरमियाँ जिंदा नहीं था
बताना आने वाली पीढियों को
हमारे बीच में झगड़ा नहीं था
मिले वो दोस्त तो बातें वही थी
मेरा बचपन कहीं भागा नहीं था
उठाकर ले गया था साथ मुझको
वो थोड़ी देर जो बैठा नहीं था
बता जाता मुझे जाता कहाँ मैं
कहीं का जब मुझे छोड़ा नहीं था
मेरे घर में रहा करता था कोई
वो जायेगा भी ये सोचा नहीं था
मेरी आँखों में पढ़ लेता वो बेशक
लबों पर तो कोई शिकवा नहीं था
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नील सुनील
नई दिल्ली
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साहित्य मंच: The Praman
संदीप राज़ आनंद
(साहित्य संपादक)
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