Sahitya Manch
हथेलियां सिकुड़ती हैं रोटी की खातिर,
फफोले निकलते हैं बेटी की खातिर।
बढ़ता हूँ आगे फिर मुड़ जाता हूँ,
बिखड़ता हूँ फिर खुद जुड़ जाता हूँ।
रास्ते का उड़ता धूल हूँ, समझ सकता हूँ।
बेबस मजदूर हूँ, समझ सकता हूँ।
कभी स्कूल बनाया तो कभी अस्पताल,
कभी भूख का भी रहा है हड़ताल।
फिर भी ना भुला अपनी जिम्मेदारी,
हमेशा किया है तेरे घर की पहरेदारी।
तेरी जहाँ से बहुत दूर हूँ, समझ सकता हूँ,
बेबस मजदूर हूँ ,समझ सकता हूँ।।
सपने नहीं आते अब मुझे रातों में,
रातें तो कट जाती है बातों बातों में।
उठकर सुबह जब मिट्टी से मिलता हूँ,
गिरता हूँ फिर खुद ही संभलता हूँ।
बड़ा मजबूर हूँ, समझ सकता हूँ,
बेबस मजदूर हूँ, समझ सकता हूँ।
– श्रवण कुमार शाश्वत
निवेदक-
साहित्य संपादक
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