साहित्य मंच – सावन शुक्ला की ग़ज़लें
ग़ज़ल_1
तमाम मज़हबी ज़हमत तमाम , जय श्री राम ।।
मैं देखने लगा कण कण में राम ,जय श्री राम ।।
चरागों अब तो उजालों पे बात आ गयी है ।।
हवा का ख़ूब हुआ एहतिराम ,जय श्री राम ।।
मैं अच्छे लोगों में अच्छा ,बुरों में डेढ़ बुरा ।।
कहो मैं कौन हूँ रावण या राम ,जय श्री राम ।।
तलाशने को मैं निकला सुनहरी इश्क़ हिरन ।।
सो दश्त दश्त फिरूँ सुबहो शाम ,जय श्री राम ।।
हमारी बस्ती में हर सुब्ह गूँजे नारा-ए-ईश्क़ ।।
वहीँ जुबाँ चढ़ा तकियाकलाम ,जय श्री राम ।।
लहू की धार है इस बार , फ़ैसला कुन यार ।।
तू कैसा शाह मैं कैसा ग़ुलाम ,जय श्री राम ।।
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ग़ज़ल_2
डूब मरने की हुई बात जवानी के लिए..
मयक़दा छोड़ के आना पड़ा पानी के लिए..
हिफ़्ज़ का मार्का रखने की ज़रूरत क्या है ..
मेरा एहसास ही काफ़ी है निशानी के लिए..
(हिफ़्ज़-याद)
मुझको ढलना ही पड़ा उसमें मिटा कर ख़ुद को..
उसका क़िरदार ज़रूरी था कहानी के लिए..
दफ़अतन टूट के निकला था किसी लहजे से..
अब तअय्युन है परेशान मआनी के लिए..
(दफ़अतन-अचानक ;तअय्युन-अस्तित्व )
उसकी आँखों में मैं इस वक्त न दिख पाऊंगा..
उसने रक्खा है मुझे दर्द बयानी के लिए..
ये इरादा भी है सौदा भी है ख़्वाहिश भी है..
कोई तो रात मिले दुश्मने जानी के लिए.
शायर सावन शुक्ला
नई दिल्ली
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संदीप राज़ आनंद
साहित्य संपादक
The Praman
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